भारत के आदिवासी समाज का अस्तित्व सदियों से प्रकृति के साथ गहराई से जुड़ा रहा है। यह समाज जंगलों, पहाड़ों और नदियों के बीच अपनी संस्कृति और परंपराओं को सहेजते हुए अपनी आजीविका चलाता है। परंतु, आधुनिक विकास और शहरीकरण की अंधी दौड़ में आदिवासियों के अस्तित्व पर लगातार संकट मंडरा रहा है। मध्य प्रदेश के सीधी जिले के मझौली उपखंड के ग्राम परसिली में आदिवासियों को उनके पुश्तैनी घरों से बेदखल करने की कोशिशें इस संकट की ताजा मिसाल हैं।
आदिवासियों की पुश्तैनी जमीन पर कब्जे की कोशिश
ग्राम परसिली में पीढ़ियों से बसे आदिवासी समुदाय अपनी जमीनों पर खेती-बाड़ी और दैनिक जीवन के लिए निर्भर रहे हैं। ये जमीनें उनके लिए केवल जीविकोपार्जन का साधन नहीं, बल्कि उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान का हिस्सा भी हैं। अब इन जमीनों को मध्य प्रदेश पर्यटन विकास निगम को हस्तांतरित करने के नाम पर आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है।
सरकार और प्रशासन ने इन जमीनों को “शासन की भूमि” घोषित करते हुए इन्हें पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना बनाई है। इस प्रक्रिया में ग्राम सभा की आपत्तियों और आदिवासियों के अधिकारों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया है।
ग्राम सभा की अनसुनी आवाज
ग्राम परसिली की पंचायत ने इस मुद्दे पर ग्राम सभा का आयोजन किया, जिसमें सभी ग्रामीणों ने सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया कि वे अपनी जमीनें पर्यटन विकास निगम को नहीं देना चाहते। उन्होंने यह मांग की कि यदि पर्यटन से संबंधित कोई गतिविधि संचालित करनी है, तो वह ग्राम पंचायत के माध्यम से की जाए।
ग्राम सभा का यह निर्णय संविधान के तहत आदिवासियों को दिए गए अधिकारों का समर्थन करता है, जिसमें ग्राम सभा को उनकी जमीनों के संबंध में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार है। बावजूद इसके, जिला प्रशासन ने सरकार के दबाव में ग्राम सभा की आपत्तियों को अनदेखा कर दिया और जमीनों को हस्तांतरित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी।
पर्यटन विकास या आदिवासी संस्कृति का ह्रास?
मध्य प्रदेश पर्यटन विकास निगम का दावा है कि यह परियोजना क्षेत्र में आर्थिक विकास और रोजगार के नए अवसर लेकर आएगी। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह विकास आदिवासियों के जीवन को बेहतर बनाएगा, या फिर उन्हें और हाशिए पर धकेल देगा?
आदिवासी समाज का कहना है कि पर्यटन स्थलों का विकास केवल धनवानों और संपन्न वर्गों के मनोरंजन के लिए किया जा रहा है। उनके लिए यह परियोजनाएं रोजगार के अवसर नहीं, बल्कि उनकी संस्कृति और अस्तित्व पर खतरा बनकर सामने आती हैं।
रजिस्ट्री घोटाले से बढ़ा संकट
ग्राम परसिली और आसपास के इलाकों में पिछले पांच वर्षों में जमीन की रजिस्ट्री में बड़े पैमाने पर अनियमितताएं हुई हैं। यह आरोप है कि प्रशासनिक अधिकारियों और नेताओं की मिलीभगत से इन जमीनों की रजिस्ट्री कराई गई, ताकि विस्थापन के दौरान मुआवजा और अन्य लाभ प्राप्त किए जा सकें।
संजय टाइगर रिजर्व से विस्थापित होने वाले 54 गांवों में भी ऐसा ही खेल देखने को मिला था। परसिली और अन्य गांवों में हुई रजिस्ट्रियों की जांच की मांग जोर पकड़ रही है। यदि इस मामले की निष्पक्ष जांच हो, तो कई बड़े नाम बेनकाब हो सकते हैं।
आदिवासियों का संघर्ष और न्याय की मांग
ग्राम परसिली के आदिवासी समुदाय ने अपनी जमीनों को बचाने के लिए संघर्ष शुरू कर दिया है। उन्होंने जिला प्रशासन और राज्य सरकार से अपनी जमीनों पर अधिकार देने और जबरन बेदखली की कार्रवाई रोकने की मांग की है।
इस संघर्ष में आदिवासियों को कई सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं का समर्थन मिल रहा है। यह लड़ाई केवल जमीन बचाने की नहीं, बल्कि आदिवासी समाज की पहचान और उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की भी है।
निष्कर्ष: आदिवासियों की आवाज को सुनने की जरूरत
पर्यटन के नाम पर आदिवासियों को उनके पुश्तैनी घरों से बेदखल करना न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि यह उनके संवैधानिक अधिकारों का भी उल्लंघन है। ग्राम सभा की अनदेखी और रजिस्ट्री घोटाले जैसे मुद्दे यह साबित करते हैं कि यह विकास परियोजनाएं आदिवासियों के हित में नहीं हैं।
सरकार और प्रशासन को चाहिए कि वे आदिवासियों की आवाज को सुनें और उनके अधिकारों की रक्षा करें। विकास का अर्थ केवल इमारतें खड़ी करना नहीं, बल्कि समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना है। आदिवासियों के साथ न्याय तभी होगा, जब उन्हें उनकी जमीनों पर अधिकार दिया जाएगा और उनकी संस्कृति को संरक्षित किया जाएगा।
आदिवासी समाज का यह संघर्ष उनके अस्तित्व की रक्षा के लिए है, और इस लड़ाई में पूरे समाज को उनके साथ खड़ा होना चाहिए।